मैं प्रकृति हूँ ,
रे मानव – व्यतीत करते हो समय – व्यर्थ ही,
खोज में मेरे अस्तित्व के इतिहास को ,
पाते हो असमर्थ एवं विवश – स्वयं को कितना,
छोड़ते नहीं फिर भी दम्भ ,
अनुभव करने में इस तथ्य का, कि –
मैं प्रकृति हूँ ,
नहीं आवश्यकता वास्तव में – मुझे तुम्हारी,
लेकिन है आवश्यकता तुम्हें – सदैव मेरी ,
भविष्य तुम्हारा निर्भर – मुझ पर ,
मुस्कुराती हूँ , फलती हूँ – मैं,
तो फलते हो तुम भी ,
लड़खड़ाई मैं,
तो है निश्चित – लड़खड़ाना तुम्हारा ,
सम्भल सको – तो सम्भल जाओ |
मैं प्रकृति हूँ,
वृक्ष मेरे, पर्वत मेरे ,
समुद्र मेरे , नदियाँ मेरी ,
धरती मेरी , आकाश मेरा ,
चहुँ ओर तो है साम्राज्य मेरा,
अरबों वर्ष पुराना,
सहस्त्रों गुना तुम्हारे से,
लम्बा है – अस्तित्व मेरा ,
फिर भी खिलवाड़ करते सदा ,
दम्भित होते रहते हो अपनी करनी पर |
मैं प्रकृति हूँ ,
मुस्कुराती स्वागत करती रहती हूँ –
कर लो मित्रता मुझसे गहरी ,
करती रहती हूँ क्षमा फिर फिर –
पर कब तक ?
मत भूल – मैं सदैव से हूँ ,
निर्धारित करना है तुम्हें ,
अपने आज के आचरण से,
स्वयं के ‘कल’ का ,
आदर करते हो मेरा अथवा अनादर ,
अंतर पड़ता नहीं मेरे को ,
मैं तैयार हूँ,
पर सोचो -क्या तुम हो ?
क्या तुम हो ? ?