poet
झूम रही है डाली डाली, अमराई बौराई इठलाती बोली प्रकृति लो आया वसन्त
ऐ बसंत तुम, जहां जाते होखिल खिल खुशनुमा हो जाते हो,तरुणाई के हिय में बसे,प्रीत रंग में,, सुर्ख गुलाब हो जाते होधरा पे फैली, पीत सरसों मेंपीत चूनर में ,शरमा
ये सुहानी शाम है लाई ये पैगाम है।आओ दिल से दिल मिला लें,रंजोगम सारे मिटा दें।भूल कर हम भेद सारे,इस शाम को रंगी बना दें।कह रही है ये फिज़ा,कभी न
सीमा पर बैठे हैं हमारे जो प्रहरी,करते रखवाली देश की सुबह शाम दोपहरी।करें हम उन वीर जवानों को नमन,जो बनाए रखते देश में शांति और अमन। गर्मी की तपती दुपहरी
ज़िंदगी में ऐसे भी पड़ाव आते हैंजब थक – हार बैठसोचने पर मजबूर होते हैं –अभी तक मैंनेक्या खोया क्या पाया ?यही हिसाब किताब रखने मेंज़िंदगी उधड़ जाती हैखोने और
मैं प्रकृति हूँ , रे मानव – व्यतीत करते हो समय – व्यर्थ ही, खोज में मेरे अस्तित्व के इतिहास को , पाते हो असमर्थ एवं विवश – स्वयं को
मैं हूँ चौकीदारसर्दी हो या गर्मी या हो बरसातहर वक़्त रहता ड्यूटी पर तैनात । घरवाली करती दूसरे घरों में कामनन्ही गुड़िया को ले जाती साथबड़ा बेटा आता मेरे संगउम्र
आंखों में है हर किसी के कोई सपना,है आसमान की ऊंचाइयों को भी छूना ।देखो – देखो खूब ऊंचे-ऊंचे सपने,ढील दो अरमानों की पतंग को अपने।सपनों की उड़ान को मत
आओ बांचे उजालों के खतआल्हाद की पगडंडी पे ,उत्सवी ऊर्जा से सरोबार होकर ! नहायें विराट उजास मेंशुतुरमुर्गी दायरे तज,छिद्र खातिरतबियत से उछालो पत्थर ! उत्सवी तितली कोबिठा के झुके
अपने किन्हीं मित्र का, पढ़ाया उन्होंने मुझे यह सन्देश, कुछ कशिश भरा, कुछ निराश मन की व्यथा से भरा, दर्शाता उनकी उत्सुकता एवं व्याकुलता – कि “पहुंच चुके हैं हम लोग, उम्र